शनिवार, 22 अगस्त 2009

तीज का उपवास

''तीज का उपवास ''

रात के ८ बजे...

आज फिर आ रही थी...

चीखने- चिल्लाने की आवाज....

हमारे होस्टल के पीछे वाली बस्ती से...

वही रोज की कहानी...

पति का दारू पीकर आना...

और पत्नी की हिंसक पिटाई...

गाली गलौज...

भाग - दौड़...

बच्चों की चीख पुकार...

सिसकियाँ..

और फिर...

डरावनी खामोशी...

कुछ नया नहीं था...

बस.....आज उस पत्नी ने...

पति की खुशहाली के लिए...

रखा था....

" तीज का उपवास " ..............वल्लभ ( सितम्बर १९८९)

सोमवार, 17 अगस्त 2009

'प्राइमरी स्कूल'

'प्राइमरी स्कूल'

वो बस्ता.... वो पटरी...

दुधिया... और स्याही...

वो मुंशी जी की चपत...


औ पंडी जी की डांट...


वो मास्साब का टोकना...


कि... कैसे नहाते हो?


यहां मैल बैठा है...


वहां मैल बैठा है...


वो पन्द्रहअगस्त और छबिच्जन्वरी...


वो लड्डू का लालच... और प्रभात फेरी....


शनिवार की बालसभा....


इतवार की छुट्टी...


पल भर में मिल्ली औ...


पल भर में कुट्टी...


दू के दू और दू दुनी चार....


पूरा सुनाने पे गुरूजी का प्यार...


बहुत याद आता है...


अपना पहला स्कूल....


कैथी गाँव का......


'प्राइमरी स्कूल' .................
वल्लभ (जुलाई १९८९)

(कैथी गाँव, वाराणसी जिले में गंगा नदी के किनारे पर स्थित है)

गुरुवार, 13 अगस्त 2009

''एक पागल''


सड़क पर घूम रहा है...
एक इंसान.....
मस्त है अपनी धुन में....
किसी से कोई शिकवा - शिकायत नही है उसे....
शायद, किसी से प्यार भी नही....
बेखबर है..........

कि दुनिया में लूट, डकैती और मार काट मची है......
अनजान है ........

कि चारों ओर,
भ्रष्टाचार और अराजकता व्याप्त है....
उसे क्या लेना देना इन सब से ?
वह तो ढूंढ़ रहा है...
एक अनजान मंजिल.
वह हँसता है हम पर.....
शायद , यह सोच कर....
कैसे 'पागल' हैं ये लोग.....
जो...
लड़ रहे हैं जाति, धर्म, भाषा, क्षेत्र और संप्रदाय
के नाम पर....
आकंठ डूबे हुए हैं ये लोग.....
रिश्वतखोरी और भ्रष्टाचार में....


लेकिन॥
हमारा सभ्य समाज...
उस इंसान को कह रहा है ...
वो देखो...
"एक पागल'' ................................वल्लभ ( सितम्बर ९०)

शनिवार, 8 अगस्त 2009

समग्र विकास


सुदूर का गाँव...
पीपल पाकड़ की छाँव ....
पगडण्डी वाला रास्ता...
बिना तार के बिजली के खम्भे ...
टपकती छत वाला
बिना मास्टर का प्राईमरी स्कूल...
कभी न खुलने वाला... जच्चा बच्चा केन्द्र...
कभी कभी खुलने वाली... राशन की दूकान....
पुश्तैनी बाहुबली.... प्रधान ....
बदहाल मजदूर, किसान....
गुल्ली- डंडा खेलते,
नंगे बदन बच्चे....
नयेपन का अभाव...
स्थिर सा जीवन....
फ़िर भी है विश्वास....
कभी जरूर होगा....
हमारे गाँव का...
" समग्र विकास" ................... वल्लभ ( मई १९९०)



शुक्रवार, 7 अगस्त 2009

"आज का अखबार"

"आज का अखबार"

रोज की तरह
आज भी अखबार आया.....
लेकिन मेरे जागने से पहले....
ये क्या...
कल भी तो यही सब था...
लूट, हत्या, डकैती....
ट्रेन दुर्घटना, चोरी, छिनैती....
बलात्कार और लठैती....
समाचारों में कुछ नया नहीं....
भ्रम हुआ....
कहीं ये पुराना अखबार तो नहीं.....
तभी नजर पडी....
" ४० करोड़ का घोटाला"
हाँ ये है ताज़ा समाचार....
पक्का !
ये है...
"आज का अखबार"
वल्लभ.... दिसम्बर, १९८९

मंगलवार, 4 अगस्त 2009

खाली स्थान

खाली स्थान

खालिस्तानी झंडा.....
सामूहिक हत्या....
अपहरण....
बम विस्फोट..
लूटपाट....
बैंक डकैती...
बोलो.. मान !
क्या यही है....
तुम्हारे लोकतंत्र की परिभाषा?
अब भी सुधरो....
वरना हरा भरा
पंजाब...
बन जाएगा
"खाली स्थान"
वल्लभ... (२ फरवरी ....१९९२)
(खालिस्तानी आंदोलन के समय की विभीषिका के परिदृश्य में )

सोमवार, 3 अगस्त 2009

भूख

भूख

कल रात ...
गरीब बस्ती से उठी...
बच्चे की आवाज
भूख.....भूख....
मन में सवाल उठा ..
क्या है भूख?
एक आंतरिक आग?
जिसे बुझाने के लिए...
किसान खेत में हल चलाता है...
मछुआरा जल में जाल डालता है...
मजदूर धूप में सड़क बनाता है...
पसीना बहाते हैं लोग...
और तब आता है आटा
भूख को मिटाने के लिए सेकीं जाती हैं रोटियां....
और फिर बुझती है ये आग...
फिर वे कौन लोग हैं? .......
जो बिना मेहनत के....
रोटियां भी सेक लेते हैं....
और उनकी भूख भी मिट जाती है....
मन में उठा एक नया सवाल...
क्या कई तरह की होती है?
" भूख"
वल्लभ... फ़रवरी...१९९१

शुक्रवार, 31 जुलाई 2009

बेरोजगार

"बेरोजगार"

ट्रेन से कटी....
एक युवक की लाश ....
वहीँ पास में पड़ा एक छोटा बैग.......
घेरा बनाए हुए भीड़....
अपना अपना विचार दे रहे लोग...
ऐसा रहा होगा, वैसा रहा होगा...
तभी पुलिस आयी.....
बैग खोला गया...
तमाम डिग्रियां और प्रमाणपत्र...
पता चला युवक डबल एम ए था ...
एक सुसाइड नोट भी था....
लिखा था....
"आज जहाँ इंटरव्यू था...
वहां की रेट भी वही थी...
पचास हज़ार रूपये...
अब मुझे कहीं काम नहीं मिलेगा...
नहीं सह सकता अब और ताने....
नहीं जी सकता अब बन कर....
"बेरोजगार"
वल्लभ.....जुलाई, सन् १९९०

गुरुवार, 30 जुलाई 2009

प्यासा पथिक

प्यासा पथिक

जेठ की चिलचिलाती धूप...
गर्म हवाएं, तपती सड़क...
उस पर चल रहा...
एक पथिक.....
बेचैन है अपनी मंजिल तक
पहुचने के लिए...
रास्ते से कुछ दूर...
एक अकेला वृक्ष...
रुकता है पथिक थोडी देर....
सता रही है उसे प्यास...
लेकिन पानी कहाँ है?...
पास का कुआँ तो सूखा है...
"जब पानी ही नहीं होगा तो कैसे जियेंगे हम?".......
यही सोचता.....
अपनी मंजिल की ओर
फिर चल देता है
"प्यासा पथिक"
वल्लभ.....मार्च, सन् १९९०

मंगलवार, 28 जुलाई 2009

बेचारा किसान

बेचारा किसान

भारत कृषि प्रधान देश है.....
तमाम जनता कृषि पर निर्भर करती है.....
देश का बजट भी
किसानो के लिए ही बनता है.....
चुनाव के समय भी किसानो की ही बात होती है....
नेतागण खुद को
किसानो का मसीहा कहते हैं....
कहते हैं..... किसानो की स्थिति सुधरी है...
क्या सुधरी है?
पहले किसान
बादलों को देख कर जीता था,
आज बिजली के तारों को देख कर जीता है...
फसल सूख जाती है...
जीवन भर यही आस लिए
कि
अच्छी फसल होगी तो
क़र्ज़ चुकेगा.....
क़र्ज़ में जन्मा.... क़र्ज़ में बढा....
और
क़र्ज़ में ही मर जाता है......
" बेचारा किसान"
वल्लभ... मई, सन् 1990